बच्चों के व्यक्तित्व का विकास - बच्चों के व्यक्तित्व का विकास
देवियों! भाइयों!!
मां अपने बच्चे के निर्माण करने के संबंध में अपने कर्त्तव्यों को प्रायः पांच वर्ष तक पूरा कर लेती है। पेट में जिस दिन से बच्चा आता है, उसी दिन से मां का कर्त्तव्य शुरू हो जाता है। बालक का स्वास्थ्य और बालक का मस्तिष्क विकास के लिए अपने चिंतन और उसको अपने आहार-विहार में किस तरह संयम बरतना चाहिए, यह क्रिया पांच साल तक जारी रहती है; क्योंकि माता का ही बच्चे से सबसे अधिक संबंध रहता है। मां के पास वह स्वयं रहता है, खेलता भी वह माता के पास है, बातचीत भी वह माता से ही ज्यादा करता है। गोदी में भी वह मां के पास आता है। माता का सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चे पर तब तक होता है, जब तक उसकी उम्र पांच साल की होती है। पांच साल के बाद शिक्षण की जवाबदारी दूसरे लोगों के कंधों पर चली जाती है। मां की, अभिभावकों की जिम्मेदारी तो हमेशा ही रहेगी, उसमें तो कमी क्या हो सकती है, लेकिन मुख्यतया उसकी जिम्मेदारियां अभिभावकों पर चली जाती हैं, जिनमें पिता मुख्य है। पहले ही कहा जा चुका है कि शिक्षण स्कूलों में भले ही हो, लेकिन व्यक्तित्व का निर्माण घर की पाठशाला में ही होता है।
घर को एक पाठशाला के रूप में विकसित किया जाना चाहिए, अगर हमको भावी पीढ़ी को अच्छा बनाना है तब माता को अपना स्वभाव, पिता को अपना स्वभाव, घर वालों को अपना स्वभाव, काम करने का ढंग, घर की व्यवस्था इत्यादि का वातावरण ऐसे बनाना चाहिए, जिसमें कि गीली मिट्टी के तरीके से बने हुए बालक ढांचे में ढलते हुए चले जायें। अगर कोई चीज ढालनी होती है, तो सारी मशीन इस तरीके से बनायी जाती है, उसके पुर्जे ऐसे बनाये जाते हैं, जैसे मान लो लोहे की गोलियां ढालनी हैं, तो उसकी सारी मशीनें, ढांचे और डाइयां ऐसी बनायी जायेंगी,
http://literature.awgp.org/book/bachho_ke_vyaktitav_ka_vikas/v1.1