पुस्तकों की प्रयोगशाला में महापुरुष
दक्षिण अफ्रीका की बात है, उस दिन गाँधीजी ने ग्लैडस्टन की जीवनी पढ़ी थी। एक प्रसंग था जिसने गाँधीजी के जीवन की एक धारा को उलट कर रख दिया। एक दिन एक आम सभा हो रही थी। उसमें ग्लैडस्टन के साथ उनकी धर्मपत्नी भी थीं। ग्लैडस्टन को चाय पीने की आदत थी। चाय बनो का कार्य उनकी पत्नी ही करती थीं। आम सभा के बीच ग्लैडस्टन ने चाय पीने की इच्छा की तो श्रीमती ग्लैडस्टन ने बिना किसी झिझक, लज्जा या संकोच के अपने हाथ से वहीं चाय बनाई। पति को पिलाई और कप-प्लेट हाथ से साफ किये। ऐसा उन्होंने कई स्थानों में किया।
इस घटना को पढ़कर गाँधीजी के जीवन में जो प्रतिक्रिया हुई, उसका उल्लेख उन्होंने स्वयं इन शब्दों में किया है-पत्नी के प्रति वफादारी मेरे सत्य के व्रत का अंग थी, पर अपनी स्त्री के साथ भी ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, यह बात दक्षिण अफ्रीका में ही स्पष्ट रूप से समझ में आई।
लोग पुस्तकें पढ़ते हैं पर जो पढ़ा गया है उस पर चिन्तन, मनन और वार्तालाप नहीं करते। उससे पढ़े हुए का प्रभाव जीवन में स्थायी नहीं हो पाता। यदि पुस्तकों के सार जीवन में उतारने की प्रक्रिया लोग सीख जाएँ, तो सामान्य-सी परिस्थितियों में हर व्यक्ति उत्कृष्टता के चरम बिन्दु तक पहुँच सकता है। पुस्तकें गौघृत और दुग्ध के समान पौष्टिक आहार हैं। जो मन, बुद्धि, आचार-विचार, विवेक को परिपुष्ट करके आत्मोत्थान का उज्ज्वल पथ प्रशस्त करती है।
गाँधीजी ने उक्त प्रसंग राजचन्द्र भाई को बड़े कौतूहल के साथ सुनाया। इस पर राजचन्द्र भाई ने कहा-बापू इसमें आश्चर्य की क्या बात है? अब आप बताइये अपनी बहिनें, बेटियाँ और छोटे-छोटे बच्चे क्या ऐसे कार्य कहीं भी नहीं कर सकते? बड़ों की आज्ञापालन में तो उन्हें प्रसन्नता ही होती है, पत्नी के इस व्यवहार को असामान्य मानने का एक
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1996/October/v2.11